बुधवार, 29 अगस्त 2012

कर्म कवि का/ Karma Kavi Ka

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नहीं चाहता
कि लिखूँ कोई कविता
जोड़-तोड़ कर शब्दों को!

जी चाहता है...
...
कि अंजुली में भर
कविता के लिए चुने गए शब्दों को
बिखरा दूँ कागज़ पे
जुए के पासों की तरह....

पासे भी ऐसे
जिन पर नहीं हो अंकित
कोई संख्या,
कोई क्रम
और छोड़ दूँ स्वतंत्र
पाठकों के चयन के लिए
कि
जिसका जो मन करे
वह क्रम दें शब्दों को
अपनी इच्छा,
अपनी चाह,
अपनी आवश्यकता के हिसाब से..
और रच लें कविता
अपनी रुचि की!

फिर पाऊँगा
कि
जो शब्द
चुने थे मैंने
एक कविता के लिए....
बन गए हैं
असंख्य कविताएँ,
अगणित भाव,
अनंत संवेदनाएँ...
हर पाठक के अनुकूल.

तब होगी
हर कविता
पाठक की,
जनता की!
और पूर्ण होगा
कर्म कवि का!
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-प्रवेश गौरी 'नमन'
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