बुधवार, 29 अगस्त 2012

कर्म कवि का/ Karma Kavi Ka

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नहीं चाहता
कि लिखूँ कोई कविता
जोड़-तोड़ कर शब्दों को!

जी चाहता है...
...
कि अंजुली में भर
कविता के लिए चुने गए शब्दों को
बिखरा दूँ कागज़ पे
जुए के पासों की तरह....

पासे भी ऐसे
जिन पर नहीं हो अंकित
कोई संख्या,
कोई क्रम
और छोड़ दूँ स्वतंत्र
पाठकों के चयन के लिए
कि
जिसका जो मन करे
वह क्रम दें शब्दों को
अपनी इच्छा,
अपनी चाह,
अपनी आवश्यकता के हिसाब से..
और रच लें कविता
अपनी रुचि की!

फिर पाऊँगा
कि
जो शब्द
चुने थे मैंने
एक कविता के लिए....
बन गए हैं
असंख्य कविताएँ,
अगणित भाव,
अनंत संवेदनाएँ...
हर पाठक के अनुकूल.

तब होगी
हर कविता
पाठक की,
जनता की!
और पूर्ण होगा
कर्म कवि का!
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-प्रवेश गौरी 'नमन'
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बुधवार, 25 अप्रैल 2012

वो बात हो ही जाए / Woh Baat Ho Hi Jaye

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इस बज़्म-ए-मयकदा में वो बात हो ही जाए!
रहम-ओ-करम-ए-साक़ी इस रात हो ही जाए!!
मुझे तेरी आरजू है, तुझे मेरी जुस्तज़ू है,
अब इसमें ही भला है, मुलाकात हो ही जाए!!
तुझे हुस्न ने संवारा, तुझे इश्क से सजा दूँ,
ये पूरी आरजू-ए-ज़ज्बात हो ही जाए!
तेरी आँखों के रस्ते से तेरे दिल में उतर जाऊँ,
दिल तेरा मेरे दिल का हमजात हो ही जाए!
मेरे होंट कह रहे हैं, तेरे लब की चुभन ले लूँ,
ये नाम 'नमन' मेरे सौगात हो ही जाए!!
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-प्रवेश गौरी 'नमन'
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सोमवार, 23 अप्रैल 2012

उन्वान क्या रखोगे / Unvaan Kya Rakhoge

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उन्वान क्या रखोगे रूदाद - ए - मुहब्बत का!
कुछ उनकी शरारत का, कुछ मेरी शराफत का!!
ये इन्द्रधनुष क्या है, बस इस में रंग भरा है,
हम ख़ाक-नसीनों के अफसाना-ए-उल्फत का!
इस शहर के बासिन्दे पत्थर के बुत जो होते,
फिर किसका चलन होता, नफ़रत का कि उल्फत का!
मैं अपने चश्म-ए-तर से दीदार-ए-हुस्न करता,
लेकिन मैं मुन्तजिर था बस तेरी इज़ाजत का!
इस रूह ने बदला है एक और नया पहरन,
क्या वक़्त आ गया है 'नमन' कि कयामत का??
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प्रवेश गौरी 'नमन'

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

सब माया है/Sab Maya Hai

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या तो मैं पागल हूँ या शख्स यहाँ भरमाया है!
दुनिया कहती प्यार हुआ है, मैं कहता सब माया है!!
सुबह की जो लालिमा है बस सूरज के नाम न कर,
जुगनू बन कर मैंने खुद को सारी रात जलाया है!
यूँ ही नहीं कोई आया है साकी तेरी चौखट पे,
होशमंद दुनिया में जाकर सबने धोखा खाया है!
एक परिंदा मेरे दिल का भरता था परवाज़ कई,
देख हवा में फैले विष को अपना पर कटवाया है!
आज़ फैसला होगा मेरे हुनर-ए-संग-तराशी का,
'नमन' मेरी महफ़िल के भीतर वो पत्थर-दिल आया है!!
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-प्रवेश गौरी 'नमन'
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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

शोधपत्र/Shodhpatra

सिनेमा और सिने-मीडिया में साहित्यकारों एवं समीक्षकों की भूमिका

प्रवेश कुमार
शोधार्थी
हिंदी विभाग
पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़।
pg.naman@gmail.com


वर्तमान युग में सिनेमा का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीकी का विकास हुआ है, मानव-जीवन जटिल होता चला गया है। इस यांत्रिकी युग में मनुष्य के स्वयं को सभ्य बनाने और समाज में प्रतिस्थापित करने के प्रयास में जीवन का आधार-तत्त्व ‘आनन्द’ कहीं पीछे छूट गया है और मनुष्य मानसिक रुग्णता का शिकार होता जा रहा है। परन्तु अपनी बौधिक क्षमताओं के आधार पर मनुष्य ने इसका समाधान भी यांत्रिकी में ही खोज लिया है। सहस्राब्दियों पूर्व मनोरंजन के लिये विकसित नट-मंडलियों का रूप आज सिनेमा ने ले लिया है। सिनेमा आज हमारे समाज में घुल-मिल गया है।
जीवन की व्यस्तताओं के चलते आज़ मानव साहित्य, शिल्प, कला, रंगमंच, संगीत, नृत्य आदि आनन्द-प्रदाता गतिविधियों को नियमित समय नहीं दे पा रहा है। इस समस्या के समाधान में सिनेमा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ‘डॉo स्मित मिश्र’ के शब्दों में, “दरअसल फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। किंतु यह अन्य कलाओं से भिन्न है। इस कला-माध्यम में अन्य तमाम कलाओं का सन्निवेश होता है- लेखन, अभिनय, नाट्य, संगीत, नृत्य, शिल्प।”1
व्यावसायिक दृष्टि से भी सिनेमा का क्षेत्र महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सिनेमा-निर्माण के साथ ही सिने-मीडिया के क्षेत्र में भी व्यवसाय के असीम अवसरों के साथ-साथ कला से सीधे जुड़े रहने का अवसर रहता है। परन्तु स्थिति इसके विपरीत है। आज़ भी भारतीय हिन्दी-सिनेमा और सिने-मीडिया में साहित्यकारों का बहुत अभाव है। ‘फिल्म-साहित्य की विडम्बना’ निबन्ध में ‘विजय अग्रवाल’ लिखते हैं, “दुर्भाग्यवश हमारा समाज सिनेमा के प्रभाव को स्वीकारने के बावजूद उसकी उपेक्षा करता है। उसने इसे कभी गंभीर माध्यम के रूप में लिया ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण फिल्म लेखन, नायक-नायिका के जीवन-प्रसंगों के इर्द-गिर्द घूमने लगा। फिल्म पत्रिकाओं की स्थिति पौष्टिक भोजन की जगह ‘चना जोर गरम’ वाली होती चली गई, और आज तो यह चटपटापन केवल दिमाग को ही नहीं, बल्कि आँखों को भी खुलेआम सुलभ है।”2
साहित्यकार और समीक्षक वर्ग को इसका उत्तरदायी ठहराते हुए वे पुनः लिखते हैं,“यदि गिने-चुने कामों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश फिल्म समीक्षकों एवं लेखकों ने भी फिल्म-लेखन को अपनी रचना-धर्मिता के सह-उत्पाद (बाइप्रोडक्ट) के रूप में ही लिया है।”3
इसका कारण देते हुए भी वे फिल्म-लेखन (फिल्म-समीक्षा-लेखन) से जुड़े समीक्षक वर्ग को ही कटघरे में खींच लाते हैं,“वस्तुतः विज्ञापन की बैशाखी पर खड़ी फिल्म-जगत की सफलता ने फिल्म-लेखन को अपनी गिरफ्त में लेकर फिल्म-साहित्य का सबसे अहित किया है। लेकिन इसके लिए फिल्म निर्माण से जुड़े लोग इतने दोषी नहीं हैं, जितने फिल्म-लेखन से जुड़े लोग हैं।”4
साहित्यकार और समीक्षक वर्ग द्वारा एक दीर्घ कालावधि तक उपेक्षा का शिकार रहा हिन्दी सिनेमा अपनी आधिकारिक स्थिति तक नहीं पहुंच पाया। साहित्यकार और समीक्षक वर्ग की इसी उपेक्षा को चित्रित करते हुए ‘विनोद भारद्वाज’ साहित्यकार के उत्तरदायित्व को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “किसी भी भाषा में किसी विषय से जुड़ी पत्रकारिता या समीक्षात्मक लेखन तभी आगे आ सकता है, जब साहित्य और भाषा से जुड़े लोग उसमें दिलचस्पी दिखाएँ तथा उस विषय के तकनीकी पक्ष और तंत्र के निकट सम्बन्ध बनाने का माहौल है। हिन्दी में इन्हीं बातों की कमी रही है। एक लम्बे समय तक हिन्दी साहित्यकार फिल्म को दूसरे दर्जे की विधा के रूप में देखते रहे। फिल्म से उनका सम्बन्ध रहा भी तो व्यावसायिक किस्म का।”5
हिन्दी साहित्यकार वर्ग द्वारा सिनेमा की उपेक्षा के विषय में ‘वृंदावन लाल वर्मा’ कहते हैं, “हिन्दी भाषा के लेखक हिन्दी सिनेमा के कलात्मक चरित्र के विकसित होने में अपना अमूल्य कलाबोध निवेशित नहीं कर पाए।”6
साहित्यकार वर्ग की उपेक्षा के साथ-साथ ही सिनेमा को समीक्षक वर्ग की उदासीनता का भी सामना करना पड़ा है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने सिनेमा की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास तो किया, परन्तु उनका समीक्षात्मक दृष्टिकोण संकीर्णता से ग्रसित रहा। अपने समीक्षात्मक लेखों में इन्होंने सिनेमा की चामत्कारिकता का चित्रण तो किया, परन्तु कला पक्ष पर अधिक नहीं लिख पाए। इसका सबसे बड़ा कारण है कि वे सिनेमा की प्रस्तुतियों को घटनाओं के रूप में ही देख पाए। कोई समीक्षक किसी फिल्म को एक बार देख कर ही उसकी समीक्षा लिखने बैठ जाए तो यह कैसे सम्भव हो सकता कि वह अपनी समीक्षा के प्रति पूर्ण न्याय कर पाएगा। ऐसा कर, समीक्षकों ने सिनेमा के कलात्मक रूप को आत्मसात न करते हुए उसके विकृत रूप को ही प्रस्तुत किया, जिससे सिनेमा के हित की अपेक्षा अहित ही हुआ है। सिनेमा और समीक्षकों के आधार पर चर्चा करते हुए ‘फिरोज रंगूनवाला’ लिखते हैं, “सन् 1951 में ‘स्क्रीन’ के प्रकाशन के साथ फिल्म पत्रिका के ऊँचे मानदण्ड स्थापित हुए। ‘फिल्मफेयर’ ने इस परम्परा को कुछ समय तक बरकरार रखा, लेकिन बाद में अपनी विश्वनीयता खो देने के बाद यह पत्रिका न इधर की रही न उधर की। इन उत्कृष्ट फिल्म पत्रिकाओं के साथ कुछ सैकेण्डलबाज पत्रिकाएं भी पनपती रही, जिन्होंने आज कलाकारों और लेखकों के बीच विद्वेष पूर्ण स्थिति पैदा कर दी है।”7
सिनेमा और साहित्यकारों के मध्य दूरी का एक और कारण सिनेमा का व्यावसायिक रूप भी रहा है। फिल्म-निर्माण में अत्यधिक लागत आती है। ऐसे में फिल्मकारों को बाज़ार का पूरा ध्यान रखना पड़ रहा है। सिनेमा को अब तक साहित्य से इतर अलग-थलग विधा के रूप में देखा जाता रहा है। परिणाम स्वरूप साहित्यकार पठकथा लेखन और सिने-निर्माण कला से अपरिचित हैं और उनको सिने निर्माता या निर्देशक के अनुरूप लेखन करना पड़ता है। अपने पास उपयुक्त सुझाव होने पर भी वे उसे सिनेमाई भाषा में व्यक्त करने में असमर्थ होते है। इस प्रकार लेखक की मौलिकता का हनन ही साहित्यकारों को सिनेमा से दूर करता है। सिनेमा में साहित्यकारों की इसी निजता और मौलिकता के हनन पर चर्चा करते हुए ‘कमलेश्वर’ लिखते हैं, “अधिकांशतः फिल्मों में व्यावसायिक रूप से लेखन की परम्परा रही है। अर्ध-स्वतंत्र और अर्ध-परतंत्र लेखन की परम्परा भी रही है, जिसने कथा, पटकथा और संवाद लेखक के हो सकते हैं-परन्तु उनका विषयगत भराव व्यावसायिक दृष्टि से होता है।”8
साहित्कारों के अभाव में भाषा भी सिनेमा से मुँह मोड़ रही है। हिन्दी सिनेमा के व्यावसायिक पक्ष और भाषा एंव पत्रकारिता पर चर्चा करते हुए ‘विनोद भारद्वाज’ लिखते हैं, "तथाकथित हिन्दी सिनेमा, सचमुच हिन्दी का सिनेमा बहुत कम हो पाया है। हिन्दी में फिल्में इसलिए बनती रही कि सारे देश में बाजार आसानी से मिल जाता है।”9
इसके कारणों पर चर्चा करते हुए वे पुनः लिखते हैं, ‘‘एक तो हिन्दी फिल्में मुख्यतः बंबई (वर्तमान मुम्बई) में बनती हैं, दूसरे व्यावसायिक सिनेमा का इतना जबरदस्त आतंक रहा है कि सिनेमाघरों की कमी के कारण, अच्छी या गंभीर कही जाने वाली फिल्मों को बनने के बाद डिब्बे में ही बंद रहना पड़ा है। कोई फिल्म बन भी जाए तो उसे दिखाया कैसे जाए। इन बातों का फिल्म-पत्रकारिता पर गहरा असर पड़ता है। अच्छी फिल्म पत्रकारिता का विकास अच्छी फिल्मों से जुड़ा है। जब अच्छी फिल्में ही नहीं हैं, तो अच्छी फिल्म पत्रकारिता कैसे जन्म लेगी।”10
हिन्दी सिनेमा जहाँ साहित्यकारों और समीक्षकों की उपेक्षा के कारण विकसित नहीं हो पाया वहीं पाश्चात्य सिनेमा के विकास में वहाँ के साहित्यकारों और समीक्षकों का बहुत योगदान रहा। पाश्चात्य समीक्षकों ने सिनेमा की शक्ति को पहचाना और अपनी कलम के माध्सम से उसके उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया।
‘अनुपम औझा’ हिन्दी-सिनेमा में साहित्यकारों की भूमिका के संदर्भ में लिखते हैं, “फिल्म लेखन के इस क्षेत्र में हिन्दी के आगा हश्र कश्मीरी, प्रेमचंद, सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ अश्क, राधाकृष्ण, अमृतलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, सत्येन्द्र शरत्, मनोहर श्याम जोशी, नीरज, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, डॉo धर्मबीर भारती, विष्णु प्रभाकर, फणीश्वरनाथ रेणू आदि भी आए, पर वे एक क्षणिक गरिमा लेकर आए। लेखकों ने फिल्मों से वापिस जाने का रास्ता खोला। ”11
इसके विपरीत अंग्रेजी सिनेमा के विकास में साहित्यकारों और समीक्षकों के योगदान पर चर्चा करते हुए वे लिखते हैं,“अंग्रेजी सिनेमा को ग्राहम ग्रीन, जार्ज वर्नार्ड शो, हेमिंग्वे, विलियम फाॅकनर, आर्सन वेल्स, सामरसेट माॅम जैसे दिग्गजों ने एक दर्जा देकर, और फिल्म-लेखन में सम्मिलित होकर, रचनात्मक प्रोफेशनल लेखकों की एक संस्कारशील जमात खड़ी कर दी, जिसने पश्चिमी सिनेमा के सांस्कृतिक कथ्य और सार्थक प्रतिवाद का माध्यम बना दिया। ”12
हिन्दी सिनेमा और साहित्यकारों के विरोधाभास को चित्रित करते हुए वे पुनः लिखते हैं,“एक तो हिन्दी प्रदेश का अपना कोई सिनेमा कहीं नहीं रहा, फिर हिन्दी के लेखक के अपने स्वभाव जन्य शुद्धतावादी नजरिए ने भी सिनेमा के साथ छुआछूत वाले रिश्तों को ही तरजीह दी। ”13
साहित्य मीडिया लेखकों और सिनेमा की दूरियों साहित्यकारों एवं मीडिया लेखकों के प्रति अरुचि के संदर्भ में कमलेश्वर लिखते हैं,“भारतीय सिनेमा की इस स्थिति के लिए अपने समकालीन लेखकों को दोषी मानता हूँ- खासतौर से हिंदी लेखकों को दोषी मानता हूँ। क्षेत्रीय सिनेमा के पास अपने साहित्यिक लेखक हैं, पर हिन्दी सिनेमा में हिन्दी लेखकों का अकाल है। ”14
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी सिनेमों में साहित्यकारों और समीक्षकों का सदा अभाव रहा है और यह अभाव सिनेमा को साहित्य और समीक्षा; दोनों विधाओं से विलग किए हुए है। साहित्यकार और समीक्षक वर्ग सिनेमा की शक्ति को पहचानने के बावज़ूद भी साहित्यिक अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नए माध्यम को आत्मसात करने से घबरा रहा है। यह वर्ग यह भूल जाता है कि सम्यक् सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए शक्तिशाली कलामाध्यमों का इस्तेमाल जरूरी है। अतः जब तक साहित्यकारों और मीडिया समीक्षकों का ध्यान इस क्षेत्र की और नहीं जाएगा, तब तक सिनेमा की वास्तविक शक्ति से हम अपरिचित रहेंगें और सिनेमा के विकास के साथ-साथ साहित्य और मीडिया को भी समान लाभ मिलेगा।

संदर्भ सूची-
1 डॉo स्मित मिश्र; भारतीय मीडिया: अंतरग पहचान; पृ॰ 172, भारत पुस्तक भंडार, दिल्ली-94, सं॰ 2008
2 विजय अगग्रवाल; फिल्म साहित्य की विडंबना; सिनेमा की संवेदना; पृ॰104 प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली-02, सं॰ 1995
3 वही; पृ॰ 104
4 वही; पृ॰ 104
5 विनोद भारद्वाज; नया सिनेमा; सिनेमाः एक समझ; पृ॰ 16; मध्य प्रदेश फिल्म निगम, भोपाल; सं॰ 1993
6 वृंदावन लाल वर्मा; सिनेमा को काली मैया उठा ले जाएँ; समकालीन सृजन अंक-17, पृ॰ 13
7 फिरोज रंगूनवाला; फिल्म पत्रकारिता विवाद ही विवाद; पटकथा; फिल्म-वार्षिकी-1993;पृ॰ 187
8 कमलेश्वर, उसके बाद (पटकथा); पृ॰ 5-6;राजपाल एंड संस, दिल्ली, सं॰1986
9 विनोद भारद्धाज;नया सिनेमा; सिनेमाः एक समझ; पृ॰ 16; मध्य प्रदेश फिल्म निगम, भोपाल; सं॰ 1993
10 वही; पृ॰ 16
11 अनुपम औझा; भारतीय सिने-सिद्धांत; पृ॰196; राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा॰लि॰, दिल्ली-51; सं॰ 2002
12 वही; पृ॰ 196
13 वही; पृ॰ 197
14 कमलेश्वर;उसके बाद(पटकथा), पृ॰5 राजपाल एंड संस, दिल्ली, सं॰1986

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

सब माया है/Sab Maya Hai

या तो मैं पागल हूँ या हर शख्स यहाँ भरमाया है!
दुनिया कहती-प्यार हुआ है, मैं कहता-सब माया है!!
सुबह की जो लालिमा है, बस सूरज के नाम न कर,
जुगनू बन कर मैंने ख़ुद को सारी रात जलाया है!
जीवन को रस्ते की तरह जी, बढ़ता चल, बढ़ता चल,
जितना कुछ पीछे खोया है, उतना आगे पाया है!
यूँ ही नहीं कोई आया है साकी तेरी चौखट पे,
होशमंद दुनिया में जाकर सबने धोखा खाया है!
एक परिंदा मेरे दिल का भरता था परवाज़ कई,
देख हवा में फैले विष को अपना पर कटवाया है!
तुझको सदा दिखाई देगी मक्कारी उन आँखों में,
जज़बातों का सौदा करके जिसने महल बनाया है!
आज़ फैसला होगा मेरे हुनर-ए-संग-तराशी का,
'नमन' मेरी महफ़िल के भीतर वो पत्थर-दिल आया है!!
.........................-प्रवेश गौरी 'नमन'

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

तब भी प्रीत निभाओगी न / Tab Bhi Preet Nibhaogi Na

जब तुम भी होगी बुढ़िया,
मुझको भी बूढ़ा पोगी न!
ऐ मेरी प्राणों से प्यारी,
तब भी प्रीत निभाओगी न!!

वक़्त बड़ा वो बेरहम होगा,
आँखों से दिखना कम होगा,
नयनों की ज्योति कम होगी,
तब भी नयन मिलाओगी न!

हर रूप में शरीर ख़म होगा,
अंग-अंग में कम्पन होगा,
तब भी अपने हिलते हाथ से,
हाथ मेरा थाम पाओगी न!

ढीले होंगे अंग दमकते,
गिरने लगेंगे दांत चमकते,
मुंह में तेरे दांत न होंगे,
तब भी हँस के दिखोगी न!

जीवन के उस कटु सफ़र पे,
सफ़ेद आ जायेंगे सर पे,
तब भी प्यार से मेरे मुंह पर,
अपने केश लहराओगी न!

छिन जाएगी लाली अधर से,
झुकने लगेंगे दोनों कमर से,
तब ले अधरों पर माधुर्य,
मुझको गले लगाओगी न!

इतना बूढ़ा हो जाऊँगा,
कि मैं चल भी न पाऊंगा,
अपने तन से बौझित पावों पर,
मुझ तक चल कर आओगी न!

ढलती उम्र का होगा वो कहर,
पड़ा हूँगा मैं जब शय्या पर,
बूढी गोद में रख मेरा सर,
तब भी यूंही सहलाओगी न!

वक्त आखरी जब आएगा,
और मुझको लेकर जायेगा,
अंत घड़ी के उस अवसर पर,
बाहों में भर जाओगी न!

ऐ मेरी प्राणों से प्यारी,
तब भी प्रीत निभाओगी न!!