बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

हर रात... / Har Raat...

हर रात...

आती है
तुम्हारा प्रतिरूप बन कर
कभी चांदनी,
तुम्हारे चेहरे-सी...
कभी अंधकारमय,
साया तुम्हारे केसों का......

तुम्हारे अधरों पर रही चुप्पी-सी
शांत!

हालात पैदा करती
ठीक तुम्हारे आने जैसे ही.....
दोनों पास-पास..
फिर भी तनहा....
निपट अकेले....

उभर आते हैं
हजारों अनपूछे प्रश्न-
तुम कभी कुछ क्यूँ न बोले?
मैंने भी लब क्यूँ न खोले?

इसी कशमकश में...
मैं निरुत्तर
तुम निरुत्तर
रात निरुत्तर!!
.....
द्वारा-प्रवेश गौरी 'नमन'


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